इंसान हूँ मैं लेकिन
फिर भी क्यों निर्मम बन जाता हूँ,
नफ़रत के सागर में
न जाने कितने गोते लगाता हूँ।
ममता ,विवेक ,दया और प्रेम
ये ख़ूबियाँ मुझे इंसान बनाती हैं ,
फिर भी न जाने क्यों मुझमें
नफ़रत की चिंगारियां सुलगती हैं।
अपने दोषों को
अनदेखा कर ,
औरों के दोष
दिन-रात गिनता हूँ।
इंसान हूँ मैं लेकिन
मेरे ज्ञान और दूरदर्शिता ने
मुझे सूरज ,चाँद ,तारे दिखाए ,
मेरी भयावह सोच ने
बर्बादी के काम कराये।
दर्द बटाना
मानवता है ,
फिर क्यों देता हूँ
औरों को दर्द ?
शायद अपनी पहचान
भूल गया हूँ
इस बार ख़ुद को ढूँढ़ूँगा ,
इंसान हूँ मैं
इंसानियत की ज्योति जलाऊँगा
नये साल में नफ़रत की आग बुझाऊँगा।
@रक्षा सिंह "ज्योति"